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नमस्ते वास्तु पुरुषाय भूशय्या भिरत प्रभो |
मद्गृहं धन धान्यादि समृद्धं कुरु स्वदा ||

वास्तु सलाहकार

भारत के सर्वश्रेष्ठ वास्तु सलाहकार

वास्तोष्पते शग्मया संसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या ।
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो, ययूं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।


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भारतीय वास्तु संपूर्ण विश्व में अनुपम है। जिसकी उत्पत्ति पवित्र वेदों से हुई है। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों के गहन शोध एवं अध्ययन से मानव जाति के कल्याण के लिए विशेष नियमों एवं सिद्धांतो का प्रतिपादन किया। जो उस समय की आवासीय व्यवस्था के लिए वरदान साबित हुआ। इसके उपरांत वास्तु के इन्हीं सिद्धांतो को पुनः संशोधित कर व्यापारिक, धार्मिक, औद्योगिक और आरोग्य विषयक बनाया। वास्तु के इन सिद्धांतों से मनुष्य जाति की सुख,समृद्धि और उन्नति के एक नया रास्ता खुल गया। वास्तु के इन नियमों का पालन करने से इंसान शांतिपूर्ण और दीर्घ जीवन व्यातीत करने के साथ-साथ प्रकृति, वातावरण एवं सूर्य मण्डल के शुभ प्रभाव को प्राप्त कर। जीवन को ऊर्जावान बना सकता है। भारतीय वास्तु शास्त्र की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। वास्तु का अर्थ प्रथ्वी और इस प्रथ्वी पर उपस्थित हर उस वस्तु से है जो इंसान के उपयोग में आती है।

भारत के महान शिल्पी एवं स्थपतियों के नाम एवं निर्माण शैली मत्स्यपुराण, अग्निपुराण आदि से प्राप्त होती है। इन्हीं महान स्थपतियों के नाम हैं - भृगु, नारद, नग्नजीत, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, ब्रह्मा, कुबेर, नंदिश, शौनक, विशालाक्ष, भर्ग, पुरंदर, शुक्र, ब्रहस्पति,अत्रि, वासुदेव, मय आदि।

भारतीय वास्तुशास्त्र विभिन्न प्रकार की रचनाओं के ज्ञान से परिपूर्ण एवं नियमबद्ध है। इसका उल्लेख विविध ग्रंथों में पाया जाता है। जैसे कि स्कंदपुराण के अंतर्गत नगर नियोजन एवं रचना, अग्गिपुराण, गुरुणपुराण तथा विश्व कर्म प्रकाश में देवालय तथा गृह वास्तु, नारदपुराण में कुआं, जलाशय आदि। तथा मत्स्यपुराण तथा मानसर में शिल्पकला, मूर्तिकला, राजप्रासाद, किला, जलबांध एवं बृहत् संहिता में भूमि परीक्षण, भूमि शोधन तथा वृक्षारोपण के वर्णन के उल्लेख है।

सभी आधुनिक वास्तु शास्त्रियों का मुख्य ध्येय (उद्धेश्य) घर, महल, बंगला, या बहुमंजिला इमारत, फ्लैट, फैक्ट्री, ऑफिस में वास्तु के ऐसे नियमों को संयोजन करना चाहिए। कि उसमें रहने वाले या काम करने वालों को सदैव खुश, शांति, और समृद्धि प्राप्त हो।

इस ब्रह्मांड का मुख्य ग्रह सूर्य है और जो प्रथ्वी के लिए एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्त्रोत है। वास्तुशास्त्र का ज्योतिष विद्या के साथ घनिष्ठ संबंध है। इसको हम एक उदारण के माध्यम से समझने कि कोशिश करते है। जैसे कि समुद्र के जल में विविधता मिलती है। कि कहीं नमक की मात्रा में न्यूनाधिकता, जल का उष्ण, शीत अथवा शीतोष्ण होना इत्यादि। उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में वास्तु का पूरा प्रभाव पडता है। क्योंकि जब समुद्र में चन्द्र किरणों के प्रभाव से ज्वार-भाटे कि उत्पत्ति होती है। तो उसका सीधा असर मनुष्य के शरीर में परिवहित खून पर पड़ता है। तथा महिलाओं के शरीर में जल का स्तर अधिक होने से चन्द्र किरणों को असर उनके मासिक धर्म पर पड़ता है।

प्राचीन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने इन्हीं सभी तत्वों का अनुभव करके इन्हीं तत्वों का लाभ लोगों को मिले, ऐसे शुभ व शुद्ध उद्देश्य से ज्योतिष शास्त्र तथा वास्तु शास्त्र की रचना की है।

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कैसे हुई वास्तु शास्त्र की उत्पत्ति

वास्तु शास्त्र की उत्पत्ति के संदर्भ में अलग-अलग ग्रंथों में विद्वानों ने अपने ज्ञान एवं विवेक के आधार पर उसको वर्णित करने के प्रयास किया है। “वास” संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ होता है घर, आवास या फिर जहां पर हम निवास करते है ऐसी जगह को वास कहते है। यही से वास्तु शब्द की उत्पत्ति हुई है।

मनुष्य के जीवन में प्रभाव डालने वाली अनेक शाक्तियों में से वास्तुशास्त्र एक अति महत्वपूर्ण शाक्ति है। कुल चार प्रकार के वास्तु है।

वास्तुशास्त्र नाप-तौल, मान, क्षेत्रफल, प्रमाण इत्यादि से सम्पन्न है। उसका व्यवस्थित व प्रमाणिक उपयोग नयनरम्य, मोहित और अंतरात्मा को संतोष प्रदान करने वाली आकृतियों को जन्म देता है। अतः नाप-तौल आदि की रचना को पद्धति में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जिसको वास्तु शास्त्र में बहुत ही बारीकी वर्णित किया गया है।

वास्तु के अभाव में जिन मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों और अन्य धार्मिक स्थानों का निर्माण हुआ है। उनमें जाने वाले लोगों की संख्या में कमी देखने को मिल रही है। इस युग में यह देखना है । कि किस प्रकार से वास्तुकला, जो हमारी वैदिक परंपराओं का एक अंश है, वह आज भी जीवित है। वेदों, गीता, वास्तुशास्त्रो और स्मृतियों को मिलाकर जो नियमावली बनती है। वह जीवन को कम से कम तनाव तथा संघर्ष से जीने की एक परिमाणवादी और व्यावहारिक मार्गदर्शिका है।

वर्तमान के ज्यादातर भवन और यहां तक कि मंदिरों तथा धार्मिक स्थलों के निर्माण करते हुए वास्तुशिल्पशास्त्र काक जरा-सा भी ध्यान नही रखा जाता है। इसका परिणाम यह होता है। कि उसमें रहने वालों और उसका उपयोग करने वालों को स्वास्थ्य, धन, जीवन साथियों, संतानों, मानिसिक शंति और सुख के अभाव से संबंधित कष्टों को भोगना पड़ता है। और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जो इमारतें भारतीय ग्रंथों के अनुसार बनाई जाती हैं। उनमें रहने वालों को सब प्रकार की संपन्नता और सुख प्राप्त होता है। क्योंकि वास्तुशिल्पशास्त्र विज्ञान, कला, खगोल विज्ञान, ज्योतिषशास्त्र तथा रहस्यमय धर्म, सिद्धांत का सम्मिश्रण है। इसलिए किसी को भी इसके गुणों और दुर्गुणों के बारे में निर्णय लेते समय बहुत सावधान रहना चाहिए।

वास्तुशास्त्र के महान ऋषि और मुनियों ने इसकी रचना करते समय अपने मस्तिष्क में इस सौरमण्डल की आत्मा सूर्य के प्रभाव, चंद्र , प्रथ्वी और उसके वासियों पर पड़ने वाले दूसरे ग्रहों के प्रभाव, उनके प्रकाश तथा ताप के प्रभावों, प्रथ्वी के वातावरण, वायु और उसकी दिशाओं, प्रथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र, आकर्षण शक्ति एवं अन्य कारकों का ध्यान रखा है।

“खगोलशास्त्र (एस्ट्रोनॉमी) ज्योतिषशास्त्र की नींव है और ये दोनों शास्त्र पंचांग सहित वास्तुशास्त्र के विभिन्न पहलुओं में, विशेष रुप से निर्माण कार्य प्रारंभ करने का दिन तथा समय निश्चित करने का निर्णय लेनें में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।”

रामायण में सात या आठ मंजिलों की इमारतों का वर्णन मिलता है। महाभारत में मय द्वारा निर्मित तथा विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ के निर्माण का उल्लेख है। विश्वकर्मा दिव्य वास्तुशिल्प विशारद हैं, जिन्होंने भगवान कृष्ण के अनुरोध पर द्वारका का निर्माण किया था जो अकल्पनीय स्वप्नलोक है।

वास्तु का वर्णन कुछ प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। जो इस प्रकार है - कश्यप शिल्पशास्त्र, बृहतसंहिता, विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र, समरांगण सूत्रधार, विष्णु धर्मोत्तर पुराण, अपराजितापृच्छा, जयपृच्छा, प्रमाण मंजरी, वास्तुशास्त्र, मय वास्तु, भृगुसंहिता आदि। वास्तु शिल्प के इस प्राचीन ज्ञान को समृद्ध करने वालों में से कुछ महान ऋषि इस प्रकार है - भृगु, बृहस्पति, शुक्र, कश्यप, वशिष्ठ, मय, विश्वकर्मा, वराहमिहिर, भोज तथा अन्य।

भारतीय जीवनशैली एवं वास्तुशास्त्र की अनुपम कला 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में पश्चिमी शिक्षा और सभ्यता के प्रभाव से अत्यधिक प्रभावित हुई। वैदिक परंपराओं और वास्तुशिल्पशास्त्र के अनुयायियों की संख्या बहुत घट गई। क्योंकि उन्हें अंधविश्वासी समझा जाने लगा। लेकिन वर्तमान समय में भारत के अनेक बुद्धिजीवी प्राचीन भारतीय साहित्य की महानता तथा गौरव के प्रति जागरुक हो रहे हैं और नई पीढ़ी के विद्वान पश्चिमी सभ्यता को अपनाने से परहेज कर रहे है।

वास्तु शास्त्र का उद्धेश्य क्या है ?

प्राचाीन भारतीय ऋषि मुनियों ने वास्तु शास्त्र का निर्माण इस उद्धेश्य से किया था । कि व्यक्ति को सर्वविध सुख, समृद्धि, एवं शान्ति प्राप्त हो। जीवन में आहार, परिधान एवं आवास की व्यवस्था सभी को सुलभ हो। वास्तु शास्त्र गृह निर्माण के संदर्भ में हमारा पथप्रदर्शन करता है। आवास में सर्वविधि सुविधाओं के साथ-साथ यह वास्तु शास्त्र निर्माण से संबंधित तकनीकि दृष्टियों पर भी मार्घ निर्देशन करता है।

वास्तु शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का आपस में किस प्रकार संबंध है ?

वास्तु शास्त्र ज्योतिष शास्त्र का एक अभिन्न अंग है। और ज्योतिष को वेदांग है। अर्थात ज्योतिष वेदों का अंग है। वेद में ज्योतिष की संज्ञा नेत्र से की गई है। इष्टनिष्ट के ज्ञान की प्रत्याशा में ही ज्योतिषशास्त्र का विकास हुआ। ज्योतिष ने वास्तु शास्त्र के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया कि कौन व्यक्ति किस दिग् देश में किस काल तक सुखी एवं समृद्ध रह कर अपने अभ्युदय को प्राप्त कर सकता है। मानव का अभ्युदय एवं निःश्रेयस सिद्ध हो यही धर्म है ।

हजारों वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने मानव जाति की सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था “यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:” जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात् भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस अर्थात आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।

विश्वरुपं नमस्कृत्य पूर्वतन्त्रानुसारतः । मण्डनस्तनुते वास्तुशास्त्रं श्रीरुपमण्डनम् ।।

आज सामाजिक जीवन में वास्तुशास्त्र की चर्चा सर्वाधिक रुप में होती है। परंतु शास्त्रीय ज्ञान की कमी में इस वास्तु शास्त्र के ज्ञानी लोगों को सम्यक् दिशा निर्देश नहीं मिल पा रहा है। वास्तुशास्त्री मात्र दिग् का सहारा लेकर इस शास्त्र को दिग् भ्रमित करने में लगे हैं। जबकि वर्तमान समय में भी इस शास्त्र की एक सुदृढ़ अलौकिक परंपरा हमारे समक्ष ग्रंथों एवं पुरातत्वाभिलेखों के रुप में विद्यमान है।

इस शास्त्र के शास्त्रीय ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण समाज को भयंकर परिणाम भोड़ने पड़ रहे हैं। अतः इस उद्धेश्य को ध्यान में रखते हुए वास्तु आर्ट के वास्तु एक्सपर्ट पंडित रविन्द्र दाधीच ने स्वतंत्र रुप से इसके अध्ययन-अध्यापन कर वास्तु और उसके मूल सिद्दांतो को पुनः लागू करने का निश्चित किया है।

वर्तमान समय में इस शास्त्र का अध्ययन वास्तु आर्ट की टीम के विद्वानों के द्वारा किया जा रहा है। वास्तु आर्ट का प्रयास है । वास्तुशास्त्र की अनवरत परंपरा पुनः स्थापित हो।

कैसे हुआ वास्तु शास्त्र का विकास

वास्तु शास्त्र का विकास के साक्ष्य आदिकाल के प्रारंभ से मिलते हैं। जब मानव गुफाओं, कंदराओं आदि में निवास करते थे। क्योंकि तब इस प्रकार के रहने की आवासीय व्यवस्था नही थी। इसके उपरांत मनुष्यों ने अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर सुनिश्चित आवास का चयन किया।

वास्तु शास्त्र के विकास में एक पौराणिक कथा के अनुसार ज्ञात होता है। कि सर्व प्रथम पृथु ने ब्रह्मा जी के आदेश के अनुसार पृथ्वी को समतल कर सुव्यवस्थित आवास की परिकल्पना की। इस परिकल्पना के पूर्ण हो जाने के बाद प्रथु ने ब्रह्मा जी से अनुरोध किया कि हे भगवन ! अब प्रथ्वी ग्राम-नगरादि, आवासीय योजनाओं के लिए पूर्णरुप से तैयार है। तब ब्रह्मा जी ने सम्यक् निर्माण के लिए पूर्वादि मुखों विश्वभू, विश्वविद्, विश्वस्रष्टा एवं विश्वस्थ से क्रमशः विश्वकर्मा, मय, मनु एवं तवष्टा की उत्पत्ति की।

ब्रह्मा जी ने अपने चारों पुत्रो से कहा कि तुम पृथ्वी में जाकर राजा पृथु के अनुसार ग्राम-नगर, पुर आदि में आवासीय योजनाओं की पृथक-पृथक रचना करो। विश्वकर्मा ने समीचीन निर्माण के लिए ब्रह्मा जी के आदेश के अनुसार एक-एक अनुयायी पुत्रों की उत्पत्ति की।

विश्वकर्मा से स्थपति, मय से सू्त्राग्राही, मनु से तक्षक एवं त्वष्टा से बार्धकी की उत्पत्ति हुई। यह तो सर्वविदित है। कि किसी भी निर्माण कार्य के लिए विभिन्न प्रकार के शिल्पियों की आवश्यकता होती है। जैसे - पाषाण विशेषज्ञ, काष्ठविशेषज्ञ, धातुविशेषज्ञ एवं चित्रादि निर्माण विशेषज्ञ।

विश्वकर्मा के ये चारों अनुयायी वेदज्ञ पुत्र सभी शास्त्रों में निपुण एवं अपने अपने कार्यों में दक्ष थे। इन सभी में स्थपित प्रमुख अभियन्ता माने जाते थे। इसमें विशेषकर सूत्रग्राही मानचित्र विशेषज्ञ, बार्धकी चित्रकला विशेषज्ञ तथा तक्षक कार्य के साथ ही काष्ठ विशेषज्ञ भी होते थे।

वास्तु शास्त्र का स्वरुप उतना ही पुरातन है, जितनी मानव सभ्यता । इस शास्त्र के सभी मूलभूत तत्व वेदों, वेदांगों, पुराणों एवं आगमग्रंथों के विभिन्न प्रसंगों में देखने को मिलता है। वैदिकेत्तर साहित्य में भी इस शास्त्र का वर्णन मिलता है। वास्तुशास्त्र का ज्योतिष एवं कल्प के साथ घनिष्ठ संबंध है। शुल्ब सूत्रों में यज्ञवेदियों की परिकल्पना ही इस शास्त्र की आधारशिला मानी जाती है। जिस प्रकार से विभिन्न आकार वाली यक्षकुण्डों से विभिन्न इष्टफलों की प्राप्त होती है। ठीक उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार घरों में रहने से फल प्रात्त होते हैं।

अलग-अलग वेदों एवं महाकाव्यों में किस प्रकार से वास्तु प्रयोग का वर्णन मिलता है

वस् निवासे धातु से इस शास्त्र का अर्थ गृह अथवा गृहार्थ निर्धारित भूखण्ड होता है।



ऋग्वेद में वास्तु पद का अर्थ निवास या गृह तथा अथर्वेद में अच्छे गृह के लिए सुवास्तु तथा गृहभाव के लिए अवास्तु शब्द प्रयुक्त हुआ है।


जबकि यजुर्वेद संहिताओं में वास्तुशब्द का प्रयोग यज्ञवास्तु के लिए होता है। सूत्रग्रंथों में वास्तुशब्द का अर्थ सामान्य निवास के रुप में प्रयुक्त होता है।

कौशिकगृह में वास्तु का अर्थ मृतकों के संस्कार स्थल के रुप में मिलता है।




रामायण एवं महाभारत महाकाव्य में वास्तु गृहनिर्माण का बोधक है। पुराणों में विशेषकर मत्स्यपुराण में देवताओं के निवासस्थान मंदिर को वास्तु कहा गया है। तथा निवासात् सर्वेदेवानां वास्तुरित्यभिधीयते।

कौटिल्य अर्थशास्त्रत्र में वास्तु शब्द का अर्थ गृह, क्षेत्र, सेतुबंध, तडाग एवं इसकी आधारभूमि को वास्तु कहा गया है। है।



कामिकातंत्र में विमान प्रादादादि भवन , अपराजितपृच्छा में ग्रामादि, मयमत में भूमि, मानसार में देवता व मनुष्यों के भवन व उससे संबंधित भूमि को वास्तु शब्द से संबोधित किया गया है।


ऋग्वेद में गृह के अर्थ में 30 शब्दों का प्रयोग मिलता है।





अथपर्ववेद के शालासूक्त में भवन निर्माण वर्णन तथा यजुर्वेद में वास्तुशब्दों का प्रयोग प्रायः यूपनिर्माण, स्तूपनिर्माण, आसन्दी निर्माण के प्रसंग मिलते हैं।


शतपथ ब्रह्माण में यज्ञादि के प्रसंग का वर्णन, इष्टिका निर्माण, इष्टिका प्रकार, इष्टिका प्रमाण आदिक का वर्णन है।




श्रोतशुल्बसूत्र में वास्तुशब्द का वर्णन सर्वाधिक रुप में मिलता है। यज्ञवेदियों के निर्माण में शुल्बसूत्रों का एक विशिष्ट स्थान है। यहां पर शुल्ब का अर्थ रस्सी से है। इसी से वेदी निर्माण के सभी कार्य सम्पादित होते हैं।

यज्ञ वेदी निर्माण में बौध चयन, आपस्तम्ब कात्यायन शुल्बसूत्रों का तथा भूमिचयन, भूशोधन एवं भूमिपूजन में शांखायन, पारस्कर, आशवालयन गृहसूत्रों का प्राधान्य मिलता है।

पुराणों के अनुसार कौन है वास्तु के प्रथम वास्तुविद् ?

वास्तुविद् देवगणों में सर्वप्रथम प्रजापति का तथा इसके बाद विश्वकर्मा, त्वष्टा,ऋभु एवं वास्तोष्पति की अच्छा आती है। प्रजापति - इन वास्तुविद् देवगणों मे ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त के अनुसार प्रथम वास्तुविद् हैं। जिन्होंने द्यु, अन्तरिक्ष, एवं पृथ्वी की रचना की। वेदों के अनुसार प्रजापति ही हिरण्यगर्भ हैं। क्योंकि बताया गया है। कि - हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः परितेकः आसीत्।

प्राचीन काल में निर्मित कुछ वास्तु के नामूने जो वास्तुकला की अनुपम कृति हैं -

रामायण एवं महाभारत में वास्तु का वर्णन बहुत स्थलों पर दिखाई देता है। जैसे किष्किन्धाकाण्ड में वर्णित विचित्र गुफा का वर्णन मय का एक अद्वितीय शिल्प कौशल, पुष्पकविभान, सेतुबंध, इन्द्रप्रस्थपुरी, द्वारिकापुरी, मिथिलापुरी, विभिन्न सभाभवन, लक्षागृह आदि। वास्तु का वर्णन मत्स्य पुराण, अग्निपुराण, गरुड़पुराण और विष्णुधर्मोत्तर में पर्याप्त रुप में मिलता है।

पौराणिक वास्तुविद् एवं कैसे हुआ वास्तुपुरुष का उद्भव

वास्तुशास्त्र से पौराणिक वास्तुविद् देवताओं में सर्वप्रथम देवादिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश का साक्षात् संबंध प्रतीत होता है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने ही पृथु की प्रार्थना पर अपने पूर्वादि मुखों से वास्तुशास्त्र की सम्यक् स्थापना के लिए चार पुत्रों विश्वकर्मा, मय, मनु, एवं त्वष्टा को उत्पन्न किया।

नारद, भृगु, पुलस्त्य, अत्रि एवं वशिष्ठादि ऋषि भी ब्रह्मा के ही मानस पुत्र हैं। ये सभी वास्तुशास्त्र के प्रणेता आचार्य हैं। भगवान विष्णु के मत्स्यावतार के रुप में मनु को वास्तुशास्त्र का, विष्णु के रुम में विश्वकर्मा को चित्रशास्त्र का तथा वराहरुप में पृथ्वी का पंग से उद्धार कर गृह, ग्राम, नगरादि बन सके इसके योग्य बनाया। शिव सभी ज्ञान राशियों के मूल स्त्रोत माने जाते हैं। भगवान शिव ही मूलरुप में वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा हैं। क्योंकि वास्तुपुरुष का उद्भव ही भगवान के तृतीय नेत्र के स्वेद बिन्दु से हुआ है।

वास्तु सलाहकार युक्तियाँ

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वास्तु आर्ट की टीम एवं वास्तु शास्त्री रविन्द जी दाधीच जी के द्वारा विशेष अध्ययन एवं शोधों के निष्कर्ष से कुछ वैदिक काल के आचार्यों एवं उनके कार्यों का वर्णन

वास्तुविद् रविन्द्र दाधीच जी बताते हैं। कि मत्स्यपुराण में वास्तुशास्त्र के 18 उपदेशक आचार्यों का वर्णन मिलता है। जैसे - भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र, एवं बृहस्पति।

अग्निपुराण में 25 वास्तु आचायों का वर्णन मिलता है। रामायण में वर्णित विश्वकर्मा के पुत्र नल,नील एवं महाभारत में वर्णित लाक्षाग्रह के कर्ता पुरोचन भी वास्तुशास्त्र के प्रख्यात आचार्य थे।

मानसागर में 32 वास्तु आचार्यों का वर्णन मिलता है। ब्रह्मावैवर्तपुराण के वर्णन के अनुसार विश्वकर्मा के 9 शापदग्ध पुत्र शिल्प कला में दक्ष थे।

1.

मालाकार

2.

कर्मकार

3.

शखकार

4.

कुविन्द

5.

कुम्भकार

6.

कांस्यकार

7.

सूत्रधार

8.

चित्रकार

9.

स्वर्णकार

शापित होने के कारण ये पुत्र आचार्य के स्थान को प्राप्त नही कर सके। वास्तुशास्त्र की यह सुदृढ़परंपरा वैदिक काल से ही प्रारंभ होती है।

वर्तमान में वास्तु शास्त्र की इस विस्तृत परंपरा के स्वरुप को देखते हुए वास्तु सलाहकार रविन्द्र दाधीच जी ने इन्वोवेटिव तरीके से वास्तु के नियमों एवं सिद्धांतो को आज के अधिकांश प्रोजेक्ट्स एवं बड़ी-बडी इमारतो में निर्माण में लागू किया है। जिसका संपूर्ण लाभ आज की पीढ़ी के लोग उठा रहे हैं।

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