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ज्ञानवापी तीर्थ की महिमा और महत्व

ज्ञानवापी तीर्थ की महिमा और महत्व

ज्ञानवापी तीर्थ की महिमा का उल्लेख स्कंद पुराण के काशीखण्ड-पूर्वार्ध में विस्तार से मिलता है। ज्ञानवापी तीर्थ का वर्णन करते हुए स्कन्द जी कहते हैं — कि कलावती रानी जो राजा माल्यकेतु की धर्म पत्नी है उसने एक शिल्पकार के द्वारा भेंट किए चित्रपट को देखते और स्पर्श करते ही उस चित्रपट में अंकित स्वर्गद्वार के आगे श्रीमणिकर्णिका तीर्थ को देखा जहाँ संसार रूपी सर्प से डसे हुए जीवों के दाहिने कान में भगवान् शिव अपने दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुए तारक ब्रह्म का उपदेश देते हैं। बार-बार चित्रपट को निहारती हुई उसने भगवान् विश्वनाथ के दक्षिण भाग में ज्ञानवापी को देखा। पुराण में महादेव जी को जिन आठ मूर्तियों से युक्त बताया जाता है, उनमें से उनकी जलमयी मूर्ति यह ज्ञानवापी ही है, जो ज्ञान प्रदान करने वाली है। ज्ञानवापी का दर्शन करके कलावती के शरीर में रोमांच हो आया। शरीर कुछ कम्पित होने लगा और माथे में पसीना आ गया। उसके दोनों नेत्र आनन्द के आँसुओं से भर आये। देह जड़वत् हो गयी। मुँह का रंग फीका हो गया और वह चित्रपट उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा। वह क्षण भर के लिये अपने-आपको भूल गयी ।

तदनन्तर कलावती की दासियाँ इधर-उधर से दौड़ती हुई आयीं और आपस में पूछने लगीं- 'क्या हुआ ? क्या हुआ? यह क्या हो गया ?' फिर वे शांतिदायक उपचारों से धैर्यपूर्वक उसकी सेवा में जुट गयीं। उसे इस अवस्था में देखकर बुद्धिशरीरिणी नाम वाली एक सखी बोली- 'मैं इसके सन्ताप को शांत करने के लिये एक उत्तम औषधि जानती हूँ।

यह इस चित्र को देखकर तत्काल विकलता को प्राप्त हुई है, अतः फिर उसी का स्पर्श करने रखकर सन्ताप रहित होगी।' बुद्धिशरीरिणीके कहने से दासियों ने कलावती के आगे उस चित्रपट रखकर कहा- 'रानीजी ! इस चित्रपट को देखिये, जिसमें आपको आनन्द देने वाले कोई इष्टदेव विराज रहे हैं।' चित्रपट का स्पर्श प्राप्त होते ही कलावती मूर्छा त्यागकर सहसा उठ बैठी। फिर उसने ज्ञानदायिनी ज्ञानवापी को देखा। चित्रपट में अंकित उस ज्ञानवापी का स्पर्श करते ही उसने जन्मान्तर का वैसा ही ज्ञान प्राप्त कर लिया जैसा कि पूर्व जन्म में था। तब उसने प्रसन्न होकर अपनी दासियों से पूर्व जन्म का वृत्तान्त कह सुनाया ।

कलावती बोली- पूर्वजन्म में मैं ब्राह्मणकी कन्या थी और काशी में विश्वनाथ-मंदिर के समीप ज्ञानवापी के तट पर प्रसन्नता पूर्वक खेला करती थी। मेरे पिता का नाम हरि स्वामी, माता का नाम प्रियंवदा और मेरा नाम सुशीला था। इस समय ज्ञानवापी को देखने से क्षणभर में मुझे यह पूर्वजन्म का ज्ञान हो गया है।

कलावती की यह बात सुनकर बुद्धिशरीरिणी तथा वे सब दासियाँ हर्ष में भरकर बोलीं- अहो ! जिस तीर्थ का ऐसा प्रभाव है, उसका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। कलावती रानी! आपको नमस्कार है।

आप हमारी मनोकामना पूर्ण करें। राजा से प्रार्थना करके हम को भी यहाँ से चलें। जो चित्रपट में प्राप्त होने पर भी आप को देने वाली हुई है, वह अवश्य ही नाम से 'ज्ञानवापी' कहलाने योग्य है।' कलावती ने उन सबकी प्रार्थना स्वीकार करके महाराज से कहा- 'प्राणनाथ! आप-जैसे पति को पाकर मेरे सब मनोरथ पूर्ण हो गये। आर्यपुत्र अब एक ही मनोरथ शेष है, जिसके लिए मैं प्रार्थना करती हूँ।

राजाने कहा-प्रिये! मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं देखता जो तुम्हारे लिये देने योग्य न हो। अतः शीघ्र कहो। तुम किससे माँगती हो, किस वस्तु को माँगती हो और कौन माँगनेवाला है? हम दोनों का आपस का बर्ताव दो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भाँति नहीं है। राज्य कोष, सेना और दुर्ग तथा अन्य भी जितनी वस्तुएँ हैं, ये सब तुम्हारी हैं, मेरा कुछ भी नहीं है। मैं नाम मात्र के लिये ही इनका स्वामी हूँ। कलावती बोली नाथ! मुझे शीघ्र काशीपुरी में पहुँचाइये।

राजा माल्यकेतू ने कहा—प्रिये! यदि तुमने काशी जाने का ही निश्चय कर लिया तो अब मुझे भी यहाँ रहने की क्या आवश्यकता। अतः हम-तुम दोनों को काशी चलना चाहिये।

इस प्रकार अपनी प्यारी पत्नी कलावती को आश्वासन देकर राजा माल्यकेतु ने पुरवासियों को बुलाकर सत्कार किया और पुत्र को राज सिंहासन पर बिठाकर कुछ रत्न-धन साथ ले काशीपुरी को प्रस्थान किया।

विश्वनाथ जी की नगरी के दर्शन करके राजा ने अपने को कृतार्थ माना और संसार सागर से पार गया हुआ समझा। पहले जन्म की वासना से रानी कलावती ने उस पुरी की समस्त गलियों और मार्गों को स्वयं पहचान लिया। उन्होंने मणिकर्णिका में स्नान करके बहुत धन दान किया और विश्वनाथजी की पूजा करके परिक्रमा करने के पश्चात् मुक्तिमण्डप में प्रवेश किया। वहाँ धर्म कथा सुनकर धन-दान किया। फिर राजा ने सायंकाल की महापूजा की और रात में जागरण किया। तदनन्तर प्रातः काल उठकर शौच और स्नान से निवृत्त हो रानी के बताये हुए मार्ग से वे ज्ञानवापी पर गये। वहाँ हर्ष में भरे हुए राजा ने कलावती के साथ स्नान किया और श्रद्धा पूर्वक पिंडदान देकर पितरों को तृप्त किया।

वहाँ सुपात्र ब्राह्मण को सुवर्ण और रजत दान किये। फिर दीनों, अन्धों, दरिद्रों और अनाथों को धन से संतुष्ट करके नरेश ने पारणा की तथा रत्नमयी सीढ़ियाँ लगवाकर ज्ञानवापी का संस्कार कराया। रानी कलावती ने अपने पति के साथ ज्ञानवापी तीर्थ के प्रति भक्ति-भाव बढ़ाया और आयु के शेष दिन तपस्या पूर्वक व्यतीत किये।

एक दिन प्रात:काल वे दोनों दम्पति ज्ञानवापी में स्नान करके बैठे हुए थे। इसी समय किसी जटाधारी व्यक्ति ने आकर उनके हाथ में विभूति दी और इस प्रकार कहा- 'उठो, आज एक ही क्षण में तुम दोनों को यहाँ तारक मंत्र का उपदेश प्राप्त होगा।' उस जटाधारी तपस्वी के इतना कहते ही आकाश से एक तेजस्वी विमान उतर आया और सब लोगों के देखते भगवान् शिव उस विमान से उतरे। उतरकर उन्होंने उन दोनों पति-पत्नी के कानों में स्वयं ही ज्ञान का उपदेश किया। उपदेश के अनन्तर अनिर्वचनीय परम ज्योति : स्वरूप वह श्रेष्ठ विमान आकाश मार्ग को प्रकाशित करता हुआ तत्काल ऊपर को चला गया और महादेव जी भी अपने परम धाम में चले गये। स्कन्द जी कहते हैं- तभी से ज्ञानवापी तीर्थ का महत्व इस संसार में अधिक हो गया। ज्ञानवापी भगवान् शिव की प्रत्यक्ष मूर्ति एवं ज्ञान उत्पन्न करनेवाली है।

वास्तु विद् -रविद्र दाधीच (को-फाउंडर वास्तुआर्ट)